मैं बूढ़ा हो रहा हूँ
तजरुबा बढ़ रहा है और
गलतियों का पिटारा भी
खुश करने से ज्यादा
खुश रहने का वक़्त गवा चूका हूँ
उम्र यूँ बीत रही है
दाढ़ी अब सफ़ेद हो रही है
बस एक आदत गलतियां
करने की छूट नहीं रही है l
बार बार करता हूँ
कई बार नई नई गलतियाँ
रोता हूँ मन को समझाता हूँ
जैसे तैसे अगली साँसे लेकर
जिंदगी में एक पग बढ़ाता हूँ
हर पग में खुद को
और बूढ़ा होते पाता हूँ
अब जिम्मेदारियां बोझ नहीं लगती
जीने का मन तो करता है
पर शरीर साथ नहीं देता
सड़ा हुआ जमाना,
मशीनो जैसी जिंदगी
हसना सिख पाया नहीं
खुद को ख़फ़ा रख कर खुद से
ना जाने क्या पाता हूँ ?
तकलीफ दुजो की मेहसूस होती है,
बस बेबस लाचार होकर रह जाता हूँ
गलतियां, नादानियाँ, कमजोरियां
कितनी कमी गिनूँ खुद की मैं
और कितने बहाने खुद से करने है ?
ज़माने को बताने है ?
स्वप्न को पूरा करने से क्यों डरता है ?
इसे नादानी का नाम देकर क्या छुपाता है ?