घाटी – पहाड़ी के रंगरेज़

ऐ रंगरेज़ क्या घोला रंग तुमने इसमें
रंग से बेरंग हो गया तू
तेरे सपनों के शहर में
विष्व के सैलानी भूले भटके
तेरे आँगन आके सुकून पाते थे

क्यूँ तू इनकी बातों में आकर
अपनी विविधता की ताकत को
कमज़ोरी बना बैठा |

हिमशृंगों की हवा
हिमालय की चोटी
उसकी धुप से
उसकी हवा से
ये हराभरा शहर
रौशन था

तारे सितारों की ऊंचाइयों को छूने वाले
घाटी पहाड़ी का अनमोल सा रिस्ता था

एक घर बनाया था मेहनत से
राख़ में जल कर गिरे उन दीवारों को देख
दिल ठहर सा गया
मन, जो फूल सा कोमल ,
बाजुएं, जो मेहनत से भरी थी,
हसीं, जो अपनों के साथ थी
सब नफ़रत की आग में जलकर हवा हो गया

किसे दोष दूँ किसे गुनहकार कहूं
इन कुकर्मों का भागी शायद मैं भी हूँ

मणिपुर आज भी जल रहा है
आखें खोले, इंसानियत की आवाज़ सुनें, आवाज़ बुलंद करे , |


ताकि मेरा आँगन, तेरा आंगन, हम सबका ये शहर- गांव
कल ये दृश्य देखने से बच सके |

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