कच्ची उम्र में मोहब्बत कर बैठा
अब दिल लगाने की उम्र निकल गई
समय के साथ ना चलना आया इसे…
किताबों के बोझ से घुट–घुट गुज़ारे वो बचपन
अब शब्द रास आए तो सीखने की उम्र निकल गई
समय के साथ ना अब भी चलना आया इसे…
जब दिल लगा तो साहस न था
अब संगी–साथी ढूंढने की उम्र निकल गई
समय के साथ वाकई ना चलना आया इसे…
इश्क़ की आड़ में दुनियां ज़माने से लड़े
जीने की उम्र सारी संकोच करते निकल गई
समय के साथ फिर भी ना चलना आया इसे…
सोचे थे एक हमसफ़र हमे भी नसीब होगा
राहत की बाहें ढूंढते–ढूंढते उम्र निकल गई
समय के साथ तब भी ना चलना आया इसे…
सातवें आसमान तक उड़ान भरे, गिरे धम्म से
चोट ऐसी लगी, इलाज़ करवाते उम्र निकल गई
वाकई समय के साथ ना चलना आया इसे…
मन की अदालत में खुद को खुद में क़ैद रखने की सजा सुनाए
अरसा बीता, खुद से खुद को मिले एक उम्र निकल गई
आशिक़ बन जाते तो भी खैर होता,
कम से कम रांझा–मजनू की तरह कपडे फाड़
पागल होकर गली–गली मारे–मारे फिरते
ये दुनियादारी के झमेले तो ना होते,
क्या ही फ़िक्र होती तब…..
यूं सोचते की, उम्र निकल गई सो निकल गई ….

समय का जवाब :
कैसे आता समय के साथ चलना
बागी बने जो हर बात पर,
इसे दुनियां के झमेले झेलने भी नहीं हैं
और फिर प्यार के लिए बाहें भी चहिए
ये ख़ुद से दगापन करे है
स्वार्थी मन ये ना खुद का हुआ, न किसी और का
समय इसके साथ चलना चाहे ही क्यों
शायद इसलिए कभी इसे समय के साथ ना चलना आया
क्योंकि समय ने कभी अपने साथ चलने लायक समझा ही नहीं इसे ।
खैर अब वैसे भी उम्र निकल गई है ।
