कितनी ही बलायें सहती है ये नारी
माँ – पिता का घर – आँगन छोड़
अनजान सी नगरी रहती है नारी |
एक लड़की थी, उसे एक लड़के से मोहब्बत हो गयी
संकोच कर उसने माँ पिता को अपने मन का हाल बताया |
एक भारतीय संस्कृति में अपने आप से
किसी को चाहना जैसे गुनाह सा है |
प्यार करना और उसे निभाना इसमें जो अंतर है
माँ पिता भली भांति उससे परिचित है |
रंग भरी दुनिया में खिले फूल की तरह खिलने से
डरते और डराते हुए समाज में हम रहते हैं |
सबको फूल की सुन्दरता लुभाती है,
उसकी महक से मन प्रफुल्लित हो उठता है
पर कांटें न हो इस डर से ये समाज
ना कभी फूल खिलाता है, ना खिलने देता है |
इन बूढी आँखों ने ना जाने क्या क्या देखा है
वक़्त को बहते , गुजरते , ढलते , गिरते , ना जाने क्या क्या
कई रात बच्चों की किलकारियां रोते, बिलखते गुज़ारी है |
फिर एक दिन ऐसा आया उसे विदा करना पड़ा.
मन में हज़ारों – लाखों सवाल थे बस एक चाहत थी
“मेरी बेटी जहाँ रहे, खुश रहे, ख़ुशियाँ फैलाये”
पिता होना भी अजीब सा रिश्ता है.
बेटी की खुशियों के लिए वो
अपने सारे सुख निच्छावर कर देता है |
रात आंखें नम कर उसे अगर यूँ एहसास हो की
वो खुश नहीं है तो पानी बिन मछली की तरह
मिलने के लिए बेताब हो जाता है.
पर निठुर समाज, उसके नियम, उसके कायदे जकड़ लेते है
साज-प्यार से बनाएं अपने ही घर को वो अपनी बेटी से पराया कर देता है.
बेटी भी मनचाहे साथी के मन की दुनिया में मग्न
कभी नहीं जताती की वो दुनिया काल्पनिक थी
असल में वो कैसी है, ये सिर्फ वही जानती है l
दुःख में है
पर खुश है वो
घर से दूर है
पर खुश है वो
मन में एक परेशानी है
आँखों से झलकता है
कभी नहीं जताती है
ढोंग ही सही, पर खुश है वो |